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म॒हो दे॒वान्यज॑सि॒ यक्ष्या॑नु॒षक्तव॒ क्रत्वो॒त दं॒सना॑। अ॒र्वाचः॑ सीं कृणुह्य॒ग्नेऽव॑से॒ रास्व॒ वाजो॒त वं॑स्व ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

maho devān yajasi yakṣy ānuṣak tava kratvota daṁsanā | arvācaḥ sīṁ kṛṇuhy agne vase rāsva vājota vaṁsva ||

पद पाठ

म॒हः। दे॒वान्। यज॑सि। यक्षि॑। आ॒नु॒षक्। तव॑। क्रत्वा॑। उ॒त। दं॒सना॑। अ॒र्वाचः॑। सी॒म्। कृ॒णु॒हि॒। अ॒ग्ने॒। अव॑से। रास्व॑। वाजा॑। उ॒त। वं॒स्व॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:48» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान राजन् ! आप (अर्वाचः) जो प्राप्त होते उन (महः) महान् अत्युत्तम महात्मा (देवान्) विद्वान् जनों से (यजसि) सङ्गत होते हैं और (आनुषक्) अनुकूलता में (दंसना) कर्मों को (यक्षि) सङ्गत करते हैं उन (तव) आपकी (क्रत्वा) प्रज्ञा से हम लोग उनको सङ्गत करें (उत) और (अवसे) रक्षा के अर्थ हम लोगों के लिये (रास्व) दीजिये और (सीम्) सब ओर से सुख (कृणुहि) कीजिये (उत) और (वाजा) अन्नों का (वंस्व) सेवन कीजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो मूर्खों को विद्वान् करते हैं, वे महत् अनुकूल सुख को प्राप्त होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वमर्वाचो महो देवान् यजसि। आनुषग्दंसना यक्षि तस्य तव क्रत्वा वयमेतान् यजेम। उताऽवसेऽस्मभ्यं रास्व सीं सुखं कृणुहि, उत वाजा वंस्व ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (महः) महतः (देवान्) विदुषः (यजसि) सङ्गच्छसे (यक्षि) यजसि (आनुषक्) आनुकूल्ये (तव) (क्रत्वा) प्रज्ञया (उत) अपि (दंसना) कर्माणि (अर्वाचः) येऽर्वागञ्चन्ति तान् (सीम्) सर्वतः (कृणुहि) (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान राजन् (अवसे) (रास्व) देहि (वाजा) अन्नानि (उत) (वंस्व) सम्भज ॥४॥
भावार्थभाषाः - ये मूर्खान् विदुषः सम्पादयन्ति ते महदनुकूलं सुखं प्राप्नुवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ- जे मूर्खांना विद्वान करतात ते खूप अनुकूल सुख प्राप्त करतात. ॥ ४ ॥